डेविस का अपरदन चक्र

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अपरदन चक्र की व्याख्या कीजिये। डेविस के अपरदन चक्र की संकल्पना का वर्णन कीजिये।

पृथ्वी की सतह पर दो तरह के बल (अन्तर्जात और बहिर्जात बल) कार्य करते हैं। अन्तर्जात बल (पटलविरूपण बल, ज्वालामुखी क्रिया, भूकम्प आदि) पृथ्वी के अन्दर से उत्पन्न होते हैं तथा धरातल पर विषमताओं का सृजन करते हैं। अन्तर्जात बलों द्वारा धरातल पर विषमताओं का आविर्भाव दो रूपों में होता है –

  1. उत्थान द्वारा पर्वत, पठार, पहाड़ियों आदि का निर्माण तथा
  2. अवतलन द्वारा झीलों, गड्ढों आदि का निर्माण।

बहिर्जात बल, जिसमें नदी का बहता हुआ जल, सागरीय तरंग, हिमानी, पवन आदि प्रमुख हैं, समतल स्थापक बल होते हैं। जैसे ही अन्तर्जात बलों द्वारा धरातल पर विषमताओं का निर्माण होता है, वहिर्जात बल इन विषमताओं को दूर करने में प्रयत्नशील हो जाते हैं तथा अन्ततः उस भाग को समतल मैदान में परिवर्तित कर देते हैं। इस प्रकार विभिन्न अवस्थाओं के सम्मिलित रूप को (तरुण, प्रौढ़ तथा जीर्ण), जिससे होकर ऊँचा उठा भाग अपक्षय तथा अपरदन द्वारा समतल प्राय मैदान में बदल गया है, अपरदन-चक्र कहते हैं। अपरदन-चक्र का ताप्पर्य है निश्चित घटनाओं के तारतम्य का पुनः होना है। इस अपरदन-चक्र को डेविस ने भौगोलिक चक्र नाम दिया है।

डेविस का भौगोलिक चक्र (Geographical Cycle of Davis)

डेविस ने सर्वप्रथम (1989 में) भौगोलिक चक्र की संकल्पना का प्रतिपादन किया। स्थलरूपों के आविर्भाव तथा विकास के सम्बन्ध में चक्रीय पद्धति का प्रयोग सर्वप्रथम डेविस ने किया था। इनका विचार है कि किसी स्थलखण्ड का विकास किसी निश्चित प्रक्रम द्वारा किसी खास आधार पर एक निश्चित समय में होता है।

डेविस ने कहा कि “भौगोलिक चक्र समय की वह अवधि है, जिसके अन्तर्गत एक उत्थित भूखण्ड अपरदन के प्रक्रम द्वारा प्रभावित होकर एक आकृतिविहीन समतल मैदान में बदल जाता है।”

डेविस ने स्थलरूपों के विकास में चक्रीय पद्धति का अवलोकन ऐतिहासिक परिवेश में किया। उन्होंने बताया कि स्थलरूपों के निर्माण एवं विकास पर संरचना, प्रक्रम (अपरदन के कारक) तथा समय (अवस्था) का प्रभाव होता है।  डेविस के अनुसार, ‘स्थलरूप संरचना, प्रक्रम तथा समय का प्रतिफल होता है।’

इन तीन कारकों – संरचना (Structure), प्रक्रम (Process) तथा समय या अवस्था (Stage) को ‘डेविस के त्रिकट’ के नाम से जाना जाता है।

डेविस का अपरदन चक्र स्थलखण्ड में उत्थान के साथ प्रारम्भ होता है। उत्थान की अवधि छोटी होती है तथा जब तक उत्थान चलता रहता है, अपरदन प्रारम्भ नहीं होता, परन्तु जैसे ही उत्थान पूर्ण हो जाता है अरपदन प्रारम्भ हो जाता है तथा वह अन्त तक चलता रहता है। इस तरह उत्थान तथा अपरदन कभी साथ-साथ नहीं चलते है।

डेविस का अपरदन चक्र निम्नांकित शर्तों का उल्लेख करता है –

  1. स्थलरूप बहिर्जात एवं अन्तर्जात कारकों की पारस्परिक क्रिया का परिणाम है।
  2. स्थलरूपों का विकास इस तरह क्रमिक रूप में होता है। यह पर्यावरणीय दशाओं में परिवर्तन के अनुरूप व्यवस्थित (क्रमबद्ध) अनुक्रम में होता है, तथा स्थलरूपों का स्वरूप पर्यावरणीय दशाओं के अनुरूप होता है।
  3. स्थलखण्ड का उत्थान तीव्रगति से लघु अवधि में पूर्ण हो जाता है। (डेविस ने यह भी व्यक्त किया है कि परस्थितिवश अन्य स्थितियों में मन्द गति से भी उत्थान हो सकता है।)
  4. जब तक उत्थान समाप्त नहीं हो जाता, अपरदन प्रारम्भ नहीं होता है।
  5. नदियाँ तब तक अपनी घाटी को गहरा करती रहती है जब तक कि वे क्रमबद्ध प्रवणित (Graded) न हो जायें। इस स्थिति की प्राप्ति के बाद नदियाँ पारिअपरदन (Lateral Erosion) द्वारा अपनी घाटी को चौड़ा करती हैं।
भौगोलिक चक्र मॉडल की अवस्थायें
समांग रचना वाले धरातलीय भाग में उत्थान के साथ अपरदन चक्र प्रारम्भ होता है। यह धरातलीय उत्थान लघु अवधि में अत्यन्त त्वरित गति से होता है। उत्थान की इस अवधि को ‘चक्री अवधि’ के अन्तर्गत सम्मिलित नहीं किया जाता है। इसे अपरदन-चक्र की ‘तैयारी का अवस्था’ या ‘प्रारम्भिक अवस्था’ कहते हैं।

भौगोलिक चक्र का ग्राफ द्वारा प्रदर्शन

चित्र द्वारा अपरदन-चक्र के मॉडल को प्रदर्शित किया गया है। UC धरातलीय भाग की सागर तल से निरपेक्ष ऊंचाई को प्रदर्शित करता है। यह ऊपरी वक्र (UC) पहाड़ियों के शिखर या जनविभाजकों के शिखर को भी प्रदर्शित करता है, जबकि LC (निचला वक्र) सागर-तल से न्यूनतम उच्चावच या नदियों की घाटियों की तली को इंगित करता है। क्षैतिज रेखा (क-ग) समय का परिचायक है, जबकि लम्बवत् रेखा (क-ख ऊँचाई (सागर तल से) को दिखाती है। अ-स सागर तल से अधिकतम निरपेक्ष उच्चावच को प्रदर्शित करती है, जबकि ब-स रेखा प्रारम्भिक सापेक्षक उच्चावच को दिखाती है। (उच्चस्थ तथा निम्नस्थ भागों के लम्बवत् अन्तर को सापेक्षिक उच्चावच या मात्र उच्चावच कहते हैं।) अ-द-ल रेखा अपरदन के आधार तल (जो सागर-तल के बराबर होता है) को प्रदर्शित करती है। ज्ञात है कि कोई भी नदी आधार-तल (सागर-तल) से नीचे अपनी घाटी को गहरा नहीं कर सकती। य-र रेखा अधिकतम सापेक्षिक उच्चावच को इंगित करती है। स के बाद स्थलखण्ड का उत्थान समाप्त हो जाता है, परिणामस्वरूप प्रारम्भिक प्रावस्था (उत्थान की अवस्था) का समापन हो जाता है।

द्वितीय अवस्था में स्थलखण्ड का उत्थान समाप्त हो जाता है इसके बाद अपरदन क्रिया प्रारम्भ हो जाती है ऊपरी वक्र अपरदन रहित रहता है जबकि निचले वक्र पर अपरदन-क्रिया सक्रिय हो जाती है।

तृतीय अवस्था में अपरदन चक्र की प्रौढ़ावस्था तथा जीर्णावस्था को सम्मिलित किया जाता है। तृतीय अवस्था में अन्य दोनों अवस्थाओं की अपेक्षा अधिक समय लगता है। इस समय क्षैतिक अपरदन तीव्र होता है। इसमें दोनों वक्रों के बीच ऊँचाई कम होने लगती है। उच्चावच घटने लगता है और अन्त में स्थलखण्ड आकृतिविहीन समप्राय में दान के रूप में बदल जाता है।

डेविस के भौगोलिक चक्र का मूल्यांकन

सिद्धान्त की सशक्तता

(i)  डेविस का मॉडल (सिद्धान्त) अत्यधिक सरल तथा व्यवहार्य है।

(ii) डेविस के सिद्धान्त ने तत्कालीन भूविज्ञान में प्रचलित विकासीय विचारधारा को भरपूर समर्थन प्रदान किया।

(iii) डेविस के सिद्धान्त में स्थलरूपों के विकास से सम्बन्धित भावी कथन (Prediction-भविष्यवाणी) तथा पिछली घटनाओं की पुनर्रचना, दोनों की सामर्थ्य है।

सिद्धान्त की आलोचना

अनेक अध्ययनों एवं चक्र की संकल्पनाओं के विश्लेषण से भौगोलिक चक्र की अनेक कमियाँ स्पष्ट होने लगी। ये कमियाँ लिखित हैं –

(i) डेविस ने भौगोलिक चक्र में चट्टानों की सरंचना तथा भूगार्भिक हलचल पर ध्यान नहीं दिया है। चट्टानों की संरचना तथा आन्तरिक अस्थिरता का चक्र पर प्रभाव पड़ता है।

(ii) डेविस के उत्थन की संकल्पना मान्य नहीं है क्योंकि डेविस ने अल्पकालिक त्वरित दर से उत्थान की बात कही है, जबकि प्लेट विवर्तन सिद्धान्त के अनुसार उत्थान की प्रक्रिया सतत चलती रहती है तथा इसकी दर अत्यन्त मन्द होती है।

(iii) डेविस की उत्थान एवं अपरदन के बीच सम्बन्धों की संकल्पना भ्रामक है। अपरदन उत्थान की समाप्ति की प्रतीक्षा नहीं कर सकता वरन् जैसे ही उत्थान प्रारम्भ होता है, अपरदन भी प्रारम्भ हो जाता है।

(iv) स्ट्रालर, हैक, चोर्ले आदि ने डेविस द्वारा प्रस्तुत स्थलरूपों के ऐतिहासिक विकास की संकल्पना को अस्वीकृत करके ‘गतिक सन्तुलन सिद्धान्त’ का प्रतिपादन किया। 

डेविस ने इस आपत्ति के सन्दर्भ में स्पष्टीकरण देते हुये कहा है कि उन्होंने उत्थान की प्रारंभ की अवस्था से अपरदन को दो कारणों से अलग किया है — (i) उत्थान की प्रारंभ की अवस्था के समय अपरदन उत्थान की तुलना में नगण होता है। तथा (ii) मॉडल को सरल बनाने के लिये।

- e.knowledge_shahi