प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत

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प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत (Plate tectonic Theory) का वर्णन करें।

प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत भू-आकृति विज्ञान का सर्वाधिक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। इस सिद्धांत का आविर्भाव विभिन्न परिकल्पनाओं, खोजों एव सिद्धांतों के द्वारा क्रमिक रूप से हुआ। वस्तुतः यह विभिन्न तथ्यों का अंतसंबंधित समुच्चय है। इसे विभिन्न विद्वानों के कार्यों का सम्मिलित प्रतिफल कहा जा सकता है, जो सर्वाधिक मान्य है। इसके आधार पर पृथ्वी के विभिन्न उच्चावच तथा विवर्तनिक घटनाओं जैसे पर्वत निर्माण, वलन, भ्रंशन, महाद्वीप प्रवाह, ज्वालामुखी क्रिया, भूकंपीय घटना आदि की व्याख्या की जाती है।

प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत

प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत की उत्पत्ति एवं प्लेटों का वितरण

अल्फ्रेड वेगनर (1912) के महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत एवं उनके द्वारा प्रस्तुत साक्ष्यों तथा हैरी हेस (1960) की सागर नितल प्रसरण संबंधी परिकल्पना ने यह सुनिश्चित कर दिया था कि पृथ्वी को भूपर्पटी स्थैतिक नहीं है बल्कि गतिक है और निश्चित रूप से भूपर्पटी का निरंतर विस्थापन हो रहा है। साथ ही पुराचुंबकत्व, भूचुंबकीय व्युत्क्रमण एवं समुद्र संबंधी खोजों ने अनेक वैज्ञानिक साक्ष्य प्रस्तुत किये, जिससे विस्थापन संबंधी सिद्धांत को बल मिला।

1950 से 1970 के दशकों में विकसित प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत किसी एक विद्वान के द्वारा विकसित नहीं हुआ है बल्कि इसमें कई विद्वानों के सिद्धांतों एवं परिकल्पनाओं का योगदान है। इस सिद्धांत को महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत का आधुनिक संस्करण माना जा सकता है। इस सिद्धांत के अनुसार, “पृथ्वी का भू-पटल कई बड़ी और छोटी प्लेटों में विभाजित है, जो एक-दूसरे के संदर्भ में तथा पृथ्वी के घुर्णन-अक्ष के संदर्भ में निरंतर गति कर रहे हैं। साथ ही स्थलमंडल (Lithosphere), दुर्बलमंडल या एस्थेनोस्फीयर (Asthenosphere) के ऊपर तैर रहा है।” इसका अर्थ यह है कि महाद्वीप और महासागरीय तल दोनों का विस्थापन हो रहा है। यहाँ पर यह सिद्धांत महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत से अलग हो जाता है, क्योंकि महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत में केवल महादीपों के विस्थापन की बात कही गई है। ‘प्लेट’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग 1965 में टूजो विल्सन (Tuzo Wilson) ने किया था। उन्होंने बताया था कि प्लेट स्थलमंडल के से टुकड़े है, जो चतुर्दिक गतिमान सीमाओं से घिरे हुए हैं। ये अत्यंत ही कठोर एवं सुदृढ़ संरचना वाले है। इस तरह के प्लेट लगभग 100 किमी. की गहराई तक विस्तृत हैं। प्लेट के अंतर्गत भूपर्पटी का संपूर्ण भाग तथा मेंटल का ऊपरी भाग शामिल है।

प्लेटों का वितरण (Distribution of Plates)

प्लेटों की संख्या के बारे में वर्तमान समय में मतभेद है, क्योंकि मोर्गन महोदय में 6 बड़ी तथा 20 लघु प्लेटें बताई है, वहीं नेशनल ज्योग्राफिक सोसाइटी, वाशिंगटन डी.सी. के कार्टोग्राफिक विभाग के अप्रैल 1995 में प्रकाशित एक प्रतिवेदन के अनुसार वृहद् प्लेटों की संख्या 7 तथा लघु प्लेटों की संख्या 16 बताई गई है। सामान्यतया भारतीय प्लेट जिसमें ऑस्ट्रेलिया भी सम्मिलित है, को कैंब्रिज विश्वविद्यालय के एक नवीन शोध के अनुसार भारतीय तथा ऑस्ट्रेलियन प्लेट, दो पृथक् प्लेटें बताया गया है। सन् 1980 तक विभिन्न शोध कार्यों के उपरांत लगभग 24 छोटी-बड़ी प्लेटों की स्वतंत्र रूप में पहचान करके मानचित्रण किया जा चुका है। इसी विश्लेषण के आधार पर पृथ्वी पर निम्नांकित बड़ी प्लेटों की पहचान की गई है –

  1. प्रशांत प्लेट (Pacific Plate): इसका अधिकांश विस्तार अलास्का से अंटार्कटिका प्लेट तक प्रशांत महासागर के नितल पर है। यह विश्व की वृहद् प्लेट है, जो पूर्णतः महासागरीय क्रस्ट से निर्मित है। यह प्लेट पश्चिम की ओर गतिशील है।
  2. उत्तरी अमेरिकी प्लेट (North American Plate): यह प्लेट कैलिफोर्निया के सैन एंड्रियाज तथा संबंधित संरचना के द्वारा प्रशांत प्लेट से मिलती है और इसमें उत्तरी अमेरिका का भूभाग स्थित है।
  3. यूरेशियन प्लेट (Eurasian Plate): इसकी पश्चिमी सीमा मध्य अटलांटिक कटक के उत्तरी भाग में 35° उत्तरी अक्षांश से प्रारंभ होती है, जहाँ से उत्तरी अमेरिकी प्लेट की पूर्वी सीमा प्रारंभ होती है। यह कटक इन दोनों प्लेटों की सीमा बनाता है, जो एक रचनात्मक क्षेत्र है। यूरेशियन प्लेट में उत्तरी हिमालय से लेकर संपूर्ण यूरेशियन भूभाग सम्मिलित है।
  4. अफ्रीकन प्लेट (African Plate): इसका विस्तार मध्य अटलांटिक कटक से 35° उत्तर से 550 दक्षिणी अक्षांशों के मध्य है। इसमें अफ्रीका महाद्वीप तथा मेडागास्कर द्वीप सम्मिलित हैं, जो दक्षिण में अंटार्कटिका प्लेट से तथा दक्षिण-पूर्व में ऑस्ट्रेलियन और भारतीय प्लेट से मिलती हैं।
  5. दक्षिणी अमेरिकी प्लेट (South American Plate): इसका विस्तार मध्य अटलांटिक कटक के पश्चिम में 20° उत्तरी अक्षांश में पाया जाता है, जो दक्षिण-पश्चिम में अंटार्कटिका प्लेट से मिलती है। इसमें दक्षिणी अमेरिका का भूभाग तथा समीपवर्ती सागरीय क्षेत्र सम्मिलित है।
  6. ऑस्ट्रेलियन और भारतीय प्लेट (Australian and Indian Plate): इसमें ऑस्ट्रेलिया तथा भारतीय उपमहाद्वीप दोनों सम्मिलित है। यह यूरेशियन प्लेट से हिमालय के पास तथा प्रशांत प्लेट से न्यूजीलैंड के पास मिलती है। न्यूजीलैंड भी हिमालय की तरह सीमा पर स्थित है। यह प्लेट उत्तर की ओर गतिशील है।
  7. अंटार्कटिक प्लेट (Antarctic Plate): अंटार्कटिक प्लेट अंटार्कटिका भूभाग को सीमाबद्ध करती है, जो दक्षिणी महासागरों के मध्य स्थित है। यह उत्तर में ऑस्ट्रेलियन और भारतीय प्लेट, प्रशांत प्लेट, दक्षिणी अमेरिकी प्लेट तथा अफ्रीकन प्लेट से मिलती है।
प्लेटों की सीमाएं एवं किनारा (Margins and Boundaries of Plates)

प्लेट के सीमांत भाग को किनारा, जबकि प्लेट के बीच संचलन मंडल को प्लेट की सीमा कहा जाता है। प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत के अनुसार संवहन तरंग, कटक दबाव और खिंचाव के सम्मिलित प्रभाव के फलस्वरूप तीन प्रकार की प्लेट सीमाएँ बनती हैं –

अपसारी या रचनात्मक प्लेट सीमा तथा किनारा

इस प्लेट सीमा के सहारे प्लेटें एक-दूसरे से विपरीत दिशा में संचलन करती है। प्लेट के अपसरण से दाव में आने वाली कमी के कारण और मैंटल के आंशिक गलन से मैग्मा की उत्पत्ति होती है। इसी गर्म लावा की दरारों से निकलने एवं जमने के कारण खंडित भाग दो विपरीत दिशाओं में संचलन करते हैं और नए भूपटल का निर्माण होता है। नए भूपटल की उत्पत्ति के कारण इसे रचनात्मक उपांत भी कहते हैं। इस उपांत का विकास तीन चरणों में अंतरमहाद्वीपीय दरार, अंतराप्लेट विरलन एवं महासागरीय कटक निर्माण प्रक्रम (process) द्वारा होता है।

अंतरमहाद्वीपीय दरार (Intercontinental Rifting): अंतरमहाद्वीपीय दरार अपसारी प्लेट सीमांत के विकास की प्रथम अवस्था है, जिसके अंतर्गत प्लेट का विखंडन, मैटल में पिघली हुई शैल के प्लूम से संवहन धाराओं के आरोहण से प्रारंभ होता है। संवहन धाराओं के ऊपर उठने से भूपटल गरम होने के बाद मुड़कर गुंबद रूपी हो जाता है। चूँकि प्लेट एक दृढ़ खंड होता है इसलिये इसका खिंचाव एक सीमा तक संभव है, जिसके बाद खिंचाव उत्पन्न होने पर भ्रंश या रिफ्ट का विकास प्रारंभ हो जाता है। भ्रंश के विकास से दाब में आने वालों कमी के कारण मैटल में मैग्मा की उत्पत्ति की दर में भी वृद्धि होती है, जिसके सतह पर आने पर ज्वालामुखी प्रक्रिया होती है। वर्तमान में पूर्वी अफ्रीकी रिफ्ट घाटी के विकास का संबंध अपसारी प्लेट सीमांत के विकास की इसी अवस्था से है।

अंतराप्लेट विरलन (Intraplate Thinning): महाद्वीपीय भूपटल पर भ्रंश घाटी के विकास के बाद मेटल में उत्पन्न मैग्मा के निरंतर आरोहण से भूपटल के नीचे की परत का गलन होता जाता है जिससे स्थलमंडल की मोटाई में कमी आती है। पटल के पतला होने के साथ-साथ सतह भी धंस जाती है जिससे भ्रंश घाटी की गहराई और चौड़ाई में वृद्धि हो जाती है। रिफ्ट दरार से निकले मैग्मा के सतह पर शीतलीकरण से बेसाल्ट से निर्मित सतह का विकास होता है। वर्तमान समय में लाल सागर का संबंध इस अंतराप्लेट विरलन की मध्य अवस्था से है। वास्तव में यह अफ्रीकी भ्रंश घाटी का विस्तार है। यह लाल सागर के विकास की पूर्व की परिचायिका है।

महासागरीय कटक निर्माण (Oceanic Ridge Formation): अंतराप्लेट विरलन की अवस्था के बाद संवहन तरंग के अपसरण एवं प्लेट के विरलन के साथ भ्रंश घाटी की चौड़ाई और गहराई में वृद्धि होती है। इसके साथ ही मैग्मा का दरार से होकर तीव्र गति से सतह पर उद्गार एवं विस्तार होता है जिसके कारण भ्रंश घाटी के समानांतर दोनों ओर बेसाल्ट से निर्मित महासागरीय कटक की उत्पति होती है। इस प्रकार अपसारी प्लेट सीमांत के विकास की अंतिम अवस्था में भ्रंश घाटी से होकर शांत दरार की ज्वालामुखी प्रक्रिया के महासागरीय कटक के रूप में नए कटक की उत्पत्ति होती है।  भ्रंश घाटी के विस्तार के कारण उथले उद्गम केंद्र वाली भूकंपीय तरंगों की उत्पत्ति होती है।

अभिसारी या विनाशी प्लेट सीमा तथा किनारा (Convergent or Destructive Plate Boundary and Margins): अभिसारी सीमा के सहारे दो प्लेटें एक दूसरे की ओर चलती हैं तथा अभिसारित होकर आपस में टकराती हैं। इन दोनों प्लेटों के बीच वाले किनारे को अभिसरण किनारा कहते हैं। इस दौरान अधिक घनत्व वाली प्लेट कम घनत्व वाली प्लेट के नीचे क्षेपित हो जाती है एवं अधिक गहराई पर पहुंचने के पश्चात् अत्यधिक ताप के प्रभाव से पिघल जाती है। जहाँ प्लेटों का क्षेपण होता है उसे ‘प्रक्षेत्र (Subduction Zone) कहते हैं। अतः इस सीमा पर प्लेट का विनाश हो जाता है। विश्व के वलित पर्वत, ज्वालामुखी, भूकंप आदि की व्याख्या इसी गति के द्वारा संभव है।

इसके अंतर्गत प्लेटों का अभिसरण तीन प्रकार से होता है –

महाद्वीपीय महाद्वीपीय प्लेट अभिसरण (Continental-Continental Plate Convergence): महाद्वीपीय महाद्वीपीय प्लेट अभिसरण की स्थिति में अंत: महाद्वीपीय पर्वतों का निर्माण होता है, जैसे हिमालय व आल्प्स पर्वत एवं एटलस पर्वत का निर्माण अफ्रीका एवं यूरेशियाई प्लेट अभिसरण के फलस्वरूप हुआ है, जबकि हिमालय पर्वत श्रृंखला का निर्माण भारतीय प्लेट तथा यूरेशियाई प्लेटों के अभिसरण के दौरान टेथिस सागर के अवसादी एवं भूपटल में मोड़ के फलस्वरूप हुआ। माना जाता है कि आज जहाँ हिमालय पर्वत है, वहाँ अतीत में टेथिस सागर नामक भूसन्नति मौजूद थी।

भारतीय प्लेट के तीव्र गति से (16 सेमी./वर्ष) उत्तर-पूर्व दिशा की और गतिशील होने के कारण टेथिस सागर के अवसादों में वलन एवं उत्थान हुआ, जिसके फलस्वरूप हिमालय पर्वत श्रृंखला की उत्पत्ति हुई। हिमालय पर्वत पर मौजूद अवसादी चट्टानों की मोटी परत तथा इसमें पाए जाने वाले सागर के जीवों के जीवाश्म से इस बात की पुष्टि होती है कि हिमालय का निर्माण भूसन्नति की चट्टानों के चलन से हुआ है। भारतीय प्लेट वर्तमान समय में लगभग 2 सेमी. प्रतिवर्ष की दर से गतिशील है, जिसके फलस्वरूप हिमालय पर्वत का उत्थान अभी भी जारी है। ऐसा माना जाता है कि अधिक गति के कारण भारतीय प्लेट का क्षेपण यूरेशियाई प्लेट के नीचे हुआ है, जिसके फलस्वरूप हिमालय के दक्षिण में समानांतर रूप से एक गर्त का निर्माण हुआ। इस गर्त में नदियों द्वारा अवसादों के निक्षेपण के फलस्वरूप उत्तर के विशाल मैदान का निर्माण हुआ।

महाद्वीपीय महासागरीय प्लेट अभिसरण (Continental-Oceanic Plate Convergence): रॉकी एवं एंडीज पर्वत का निर्माण महाद्वीपीय एवं महासागरीय प्लेट के अभिसरण की गति के परिणामस्वरूप हुआ है। महाद्वीपीय महासागरीय प्लेटों के अभिसरण में अधिक घनत्व वाली महासागरीय प्लेट का महाद्वीपीय प्लेट के नीचे क्षेपण हो जाता है तथा अत्यधिक संपीडन के कारण प्लेट के किनारे के पदार्थों का वलन होता है, जिससे मोड़दार पर्वतों की उत्पत्ति होती है। अधिक घनत्व वाली प्लेट के नीचे धँसने से गर्त का निर्माण होता है। अधिक गहराई में महासागरीय प्लेट पिघल जाती है। ये पिघली हुई चट्टानें मैग्मा के रूप में धरातल पर उद्गमित होती हैं। एंडीज पर्वतश्रेणी पर ज्वालामुखी की उपस्थिति तथा पेरू गर्त की व्याख्या इस गति के द्वारा होती है।

जब दोनों प्लेटे महासागरीय होती है तो टकराव की स्थिति में एक प्लेट का अग्रभाग दूसरी प्लेट के नीचे क्षेपित हो जाता है एवं उत्पन्न संपीडन से द्वीपीय तोरण एवं द्वीपीय चाप की उत्पत्ति होती है। जापान द्वीप व चाप का निर्माण इसी गति के फलस्वरूप हुआ है, इस गति में क्षेपित प्लेट अधिक गहराई में जाकर पिघलती है जिससे ज्वालामुखी क्रिया होती है एवं ज्वालामुखी पर्वतों का निर्माण होता है।

संरक्षी प्लेट सीमा तथा किनारा (Conservative Plate Boundary and Margins): संरक्षी सीमा के सहारे प्लेटें एक-दूसरे के साथ क्षैतिज दिशा में प्रवाहित होती है। अर्थात् प्लेटें एक-दूसरे के समानांतर परंतु विपरीत दिशा में गतिशील होती हैं। इस दौरान यहाँ न तो नए क्रस्ट का निर्माण होता है और न ही विनाश प्लेटों के घर्षण के कारण इन क्षेत्रों में भूकंप उत्पन्न होता है। सैन एंडियाज भ्रंश (कैलिफोर्निया) का निर्माण इसी संचलन के कारण हुआ है।

 

- e.knowledge_shahi