पृथ्वी की आन्तरिक संरचना
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पृथ्वी की आन्तरिक संरचना की व्याख्या कीजिये।
पृथ्वी का आन्तरिक भाग मानव के लिए दृश्य नहीं है, अतएव उसकी आन्तरिक संरचना का ज्ञान प्राप्त करना अत्यन्त दुष्कर है। फिर भी अप्राकृतिक साधन, यथा घनत्व, दबाव एवं तापक्रम, पृथ्वी की उत्पत्ति से सम्बन्धित सिद्धान्तों के साक्ष्य और प्राकृतिक साधनों के द्वारा पृथ्वी की आन्तरिक संरचना का अल्प ज्ञान हो सकता है।
- अप्राकृतिक साधन (Artificial Sources)
- घनत्व – पृथ्वी का ऊपरी भाग परतदार शैल का बना है, जिसकी औसत मोटाई, 1 किमी. के लगभग है, कहीं-कहीं पर यह मोटाई कई किमी. भी है। इस परतदार सतह के नीचे पृथ्वी के चारों ओर रवेदार अथवा स्फटिकीय शैल (Crystallin Rocks) की एक दूसरी परत है। इस चट्टानी परत का घनत्व कहीं पर 3.0 है तो कही पर 3.5 g/cm³ है। परन्तु समस्त पृथ्वी का औसत घनत्व 5.50 g/cm³ के लगभग है।
इसी आधार पर भौतिकशास्त्र के विद्वानों का अनुमान है कि पृथ्वी का केन्द्र भाग निकिल अथवा लोहे जैसे भारी पदार्थों का बना है तथा इनका घनत्व लगभग 11 है। न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त के आधार पर कैवेन्डिश (Cavendish) ने 1798 ई. में पृथ्वी के औसत घनत्व के मापन का प्रयास किया है। इनके अनुसार पृथ्वी का औसत घनत्व जल की तुलना में 5.48 गुना अधिक है। प्वायन्टिंग (Poynting) ने 1978 ई० में एक प्रयोग के आधार पर पृथ्वी का औसत घनत्व 5.49 g/cm³ परिकलित किया। 1950 ई. के बाद उपग्रह (satellite) के आधार पर पृथ्वी के औसत घनत्व के परिकलन का सिलसिला प्रारम्भ हो गया है। इसके अनुसार पृथ्वी का औसत घनत्व 5.517 g/cm³, धरातल का घनत्व 2.6 से 3.3 g/cm³ के बीच तथा केन्द्र का घनत्व 11 g/cm³ परिकलित किया गया है। इस प्रकार यह प्रमाणित होता है कि पृथ्वी के अन्तरतम का घनत्व सर्वाधिक है।
- दबाव – पृथ्वी के अन्तरतम का अधिक घनत्व बढ़ते भार के कारण और बढ़ते हुए दबाव के कारण है, क्योंकि बढ़ते हुए दबाव के साथ चट्टान का घनत्व भी बढ़ जाता है। इस तरह यह प्रमाणित होता है कि पृथ्वी के अन्तरतम का अत्यधिक घनत्व वहाँ पर स्थित अत्यधिक दबाव के कारण है। परन्तु आधुनिक प्रयोगों द्वारा यह प्रमाणित कर दिया गया है कि प्रत्येक शैल में एक ऐसी सीमा होती है, जिसके आगे उसका घनत्व अधिक नहीं हो सकता, उसका दबाव चाहे कितना भी अधिक क्यों न कर दिया जाये।
- तापक्रम – सामान्य रूप से यह विदित है कि (Bore Holes तथा Mines से उपलब्ध विवरणों के आधार पर) पृथ्वी की बाह्य सतह से नीचे की ओर गहराई में जाने पर औसत रूप में तापमान प्रति 100 मीटर पर 2 या 3.0 सेन्टीग्रेड की दर से बढ़ता है। परन्तु 8 किमी. से अधिक गहराई पर जाने पर तापमान की वास्तविक वृद्धि दर का पता लगाना कठिन हो जाता है। वैज्ञानिक परीक्षणों के आधार पर महाद्विपीय क्रस्ट में तापमान की वृद्धि दर का परिकलन भूताप ग्राफ (Geotherms Graphs) के आधार पर किया गया है। इस विधि से प्राप्त विवरणों के आधार पर यह समान्नीकरण (Generalisation) किया गया – विवर्तनिक रूप से सक्रिय (Tectonically Active) क्षेत्रों में (यथा संयुक्त राज्य अमेरिका का (Basin and Range Province) सतह से 43 किमी. की गहराई पर तापमान 1000° से. रहता है। जबकि विवर्तनिक रूप से स्थिर प्रदेशों में 40 किमी. की गहराई पर तापमान 500° से. ही रहता है। इस विवरण से महाद्वीपीय क्रस्ट के व्यवहार के विषय में महत्त्वपूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है। विवर्तनिक रूप से सक्रिय क्षेत्र में क्रस्ट में 40 किमी. की गहराई पर 1000 से. तापमान गम्भीर क्रस्ट और मेण्टिल की शैली खासकर बेसाल्ट तथा पेरिडोटाइट के प्रारम्भिक गलनांक (Initial Melting) के करीब है। इस तरह क्रस्ट के गर्म क्षेत्र में विवर्तनिक घटना तथा ज्वालामुखी क्रिया तथा गलनांक के करीब तापमान में गहरा सम्बन्ध स्थापित होता है तथा अपेक्षाकृत कम तापमान क्षेत्र दीर्घकालीन भूगर्भिक (विवर्तनिक) स्थिरता से सम्बन्धित है।
- पृथ्वी की उत्पत्ति से सम्बन्धित सिद्धान्तों के साक्ष्य
ग्रहाणु परिकल्पना (Planetesimal Hypothesis) के अनुसार पृथ्वी का निर्माण ठोस ग्रहाणुओं के एकत्रीकरण के कारण माना गया है। इस आधार पर पृथ्वी का अन्तरम ठोस अवस्था में होना चाहिए। ज्वारीय परिकल्पना (Tidal Hypothesis) के अनुसार यदि पृथ्वी का निर्माण सूर्य से निस्तृत ज्वारीय पदार्थ से हुआ तो पृथ्वी की अन्तरम तरल अवस्था में होना चाहिए। निहारका परिकल्पना (Nebular Hypothesis) के अनुसार पृथ्वी की उत्पत्ति गैस से बनी निहारिका से मानी जाती है। इस आधार पर पृथ्वी का अन्तरतम वायव्य अवस्था में होना चाहिए, वैसे लाप्लास अन्तरतम को तरल मानते हैं।
- प्राकृतिक साधन (Nautral Surces)
ज्वालामुखी क्रिया ज्यालामुखी के उद्गार के समय पृथ्वी के आन्तरिक तथा ऊपरी भाग में गर्म तथा तरल लावा का विस्तार हो जाता है। इस आधार पर कुछ विद्वानों का यह विश्वास है कि पृथ्वी की गहराई में कम से कम एक ऐसी परत अवश्य है जो कि सदैव तरल अवस्था है। इसी को मैग्मा भण्डार (Magma Chamber) बताया गया है, जहाँ से ज्वालामुखी के उद्गार के समय तरल एवं तप्त मैग्मा पृथ्वी के ऊपर प्रकट होता है। इस आधार पर पृथ्वी का कुछ भाग तरल अवश्य होना चाहिए। परन्तु जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि आन्तरिक भाग में अत्यधिक दबाव चट्टानों को पिघली अवस्था में नहीं रहने देगा। इस प्रकार आन्तरिक भाग ठोस होगा न कि तरल। हाँ, यह सम्भव हो सकता है कि पृथ्वी के ऊपरी भाग पर दरार आदि पड़ने से चट्टान का दबाव कम हो जाता है, जिससे चट्टान का गलनांक बिन्दु गिर जाता है, जिस कारण चट्टान वहाँ पर वर्तमान अधिक ताप के कारण पिघल कर ज्वालामुखी के रूप में प्रकट हो जाती है। इस तरह ज्यालामुखी के उद्गार होते हैं। इससे भी पृथ्वी के अन्तःकरण की बनावट के विषय में कोई निश्चित तथ्य नहीं निकल पाते।
भूकम्प विज्ञान के साक्ष्य (Evidences of Seismology) – भूकम्प विज्ञान वह विज्ञान है जिसमें भूकम्पीय लहरों (Seismic Waves) का अंकन करके अध्ययन किया जाता है। भूकम्प विज्ञान ही एक ऐसा प्रत्यक्ष साधन है, जिससे पृथ्वी के आन्तरिक भाग की बनावट के विषय में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध होती है। जिस जगह से भूकम्प का कम्पन प्रारम्भ होता है, उसे भूकम्प मूल (Focus) कहते हैं, तथा जहाँ पर भूकम्पीय लहरों का अनुभव सबसे पहले किया जाता है, उसे भूकम्प केन्द्र (Epicentre) कहते हैं। भूकम्पीय लहरों की प्रकृति के आधार पर अनुमान लगाया जाता है कि ऊपरी भाग ठोस, मध्यवर्ती भाग द्रव तथा केन्द्र भाग अन्यन्त ठोस है।
पृथ्वी का संगठन एवं विभिन्न परतें
स्वेस नामक विद्वान ने पृथ्वी की निम्नलिखित परते बताई हैं —
- भूपटल (Crust) – स्वेस ने पृथ्वी की रासायनिक संरचना के विषय में प्रकाश डाला है। भूपटल का ऊपरी भाग अवसाद (Sediments) से निर्मित परतदार शैलों का बना है, जिसकी गहराई तथा घनत्व बहुत कम है। यह परत रवेदार शैल खासकर सिलिकेट पदार्थों की बनी है, जिसमें फेल्सपार तथा अभ्रक आदि खनिजों की बहुतायत होती है। इस परत के भी दो भाग किये गये हैं। प्रथम परत हल्के सिलिकेट पदार्थो की बनी है। इसमें सिलिकेट की मात्रा बहुत कम होती है, कहीं-कहीं पर फेल्सपार की मात्रा अधिक होती है। दूसरी परत सघन सिलिकेट वाली परतदार चट्टान है। इसमें सिलिकेट की मात्रा अधिक होती है।
- सियाल (SiAl) – परतदार शैलों के नीचे सियाल की एक परत पायी जाती है, जिसकी रचना ग्रेनाइट चट्टान से हुई है। इस परत की रचना सिलिका (Silica – Si) तथा एल्युमीनियम (Alurninium -Al) से हुई है। इसी कारण इस परत को सियाल कहा जाता है। इस परत का औसत घनत्व 2.9 है तथा इसकी औसत गहराई 50 से 300 किलोमीटर है। भूगोलवेत्ताओं का विचार है कि महाद्वीपों की संरचना इसी चट्टान द्वारा हुई है।
- सीमा (SiMa) – सियाल के नीचे दूसरी परत सीमा की है। इसकी रचना बेसाल्ट (आग्नेय शैलों) से हुई है। यहीं से ज्वालामुखी के उद्गार के समय गर्म एवं तरल लावा बाहर आता है। रासायनिक बनावट के दृष्टिकोण से इनमें सिलिका (Silica) तथा मैग्लेशियम (Magnesium) की प्रधानता होती है। इसी कारण इस परत को सीमा कहते हैं।। इसका औसत घनत्व 2.9 से 4.7 है तथा इसकी गहराई 1000 से 2000 किलोमीटर तक है। इस सतह में क्षारीय पदार्थों की अधिकता होती है तथा मैग्लेशियम, कैल्सियम एवं लोहे की मात्र अधिक पाई जाती है।
4. निफे (NiFe) – सीमा की परत के नीचे पृथ्वी की तीसरी तथा अन्तिम परत पायी जाती है। इसे निफे कहते हैं, क्योंकि इसकी रचना निकल (Nickel) तथा फेरस (Ferus) या फेरियम से मिलकर हुई है। इस प्रकार यह परत कठोर धातुओं की बनी है, जिस कारण इसका घनत्व अधिक (11) है। इसका नामकरण निकल के प्रथम दो अक्षर (Ni) तथा फेरस के प्रथम दो अक्षर (Fe) को लेकर ‘निफे’ किया गया है। इसकी व्यास 6880 किमी. के लगभग है। फेरियम लोहे का ही रूप होता है। इस प्रकार पृथ्वी के अन्तरतम (कोर) में लोहे की उपस्थिति है। इससे यह पता चलता है कि पृथ्वी में एक चुम्बकीय शक्ति है। इससे पृथ्वी की स्थिरता (Rigidity) भी प्रमाणित होती है।
- e.knowledge_shahi
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